
बहुत समय पहले, जब श्रीकृष्ण गोकुल में बालक रूप में थे, तब एक अद्भुत घटना घटी। गोकुल और उसके आस-पास के क्षेत्र में लोग भगवान इंद्र की पूजा बड़े धूमधाम से किया करते थे। उनका मानना था कि इंद्र देवता वर्षा करते हैं और उनकी कृपा से फसलें अच्छी होती हैं।

एक दिन श्रीकृष्ण ने गोकुलवासियों से पूछा, “आप इंद्र देव की पूजा क्यों करते हैं?” इस पर गोकुलवासियों ने बताया कि इंद्र देव की कृपा से हमें जल और अन्न मिलता है। श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “लेकिन असली पोषण तो गोवर्धन पर्वत से होता है। वह हमारी गायों के लिए हरी-हरी घास देता है और पूरे क्षेत्र की प्रकृति का संरक्षण करता है। हमें इंद्र की बजाय गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।”
गोकुलवासियों ने कृष्ण की बात मान ली और इंद्र देव की पूजा रोककर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे। यह देखकर इंद्र देव को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपना गुस्सा दिखाने के लिए मूसलधार बारिश शुरू कर दी। गोकुलवासियों पर आफत टूट पड़ी। तेज़ बारिश से बस्ती डूबने लगी, और लोग डर से कांपने लगे।
तभी छोटे से श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों को दिलासा दिया और कहा, “डरो मत। मैं सब संभाल लूंगा।” फिर उन्होंने अपनी छोटी सी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लिया, मानो कोई खिलौना उठा रहे हों। उन्होंने कहा, “आओ, सभी लोग इस पर्वत के नीचे शरण लो।”
गोकुलवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे आकर सुरक्षित हो गए। सात दिनों तक लगातार बारिश होती रही, लेकिन श्रीकृष्ण अपनी छोटी उंगली पर पर्वत उठाए खड़े रहे। यह देखकर इंद्र देव को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण के बाल रूप को प्रणाम किया और अपनी वर्षा रोक दी।
इंद्र ने समझ लिया कि श्रीकृष्ण कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं ईश्वर के अवतार हैं। उन्होंने क्षमा मांगी और वादा किया कि वे अब अहंकार नहीं करेंगे।

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने न केवल गोकुलवासियों को बचाया, बल्कि यह संदेश भी दिया कि प्रकृति की पूजा करनी चाहिए और हमें अहंकार से बचना चाहिए। इस घटना के बाद से गोवर्धन पूजा का त्योहार मनाया जाने लगा।
“जय श्रीकृष्ण!”
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